24-Jun-2023, Saturday
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LEPROSY
भारत सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय में कुष्ठ रोग उन्मूलन की रणनीति से जुड़े सुबोध कुमार की किताब "मिथ्स एंड फैक्ट्स अबाउट लेप्रोसी (हैनसेन डिजीज)" पर आधारित आलेख।
नई दिल्ली: मानव इतिहास में कुछ बीमारियों को गलत समझा गया है। इसमें कुष्ठ रोग (Leprosy) भी शामिल है। तकरीबन 1550 ईपू में पूर्वी अफ्रीका में उत्पन्न कुष्ठ रोग की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है जो गलत धारणाओं, भय और सामाजिक बहिष्कार से जुड़ी हुई है। कुष्ठ रोग के क्षेत्र में गहराई से विचार कर इस इलाज योग्य बीमारी से प्रभावित लोगों के खिलाफ भेदभाव को मिटाना और सच्चाई को बढ़ावा देना हमारा उद्देश्य होना चाहिए।
कुष्ठरोग को दुनिया की प्राचीन बीमारियों में से एक है। महाद्वीपों और संस्कृतियों को पार करते हुए गुलाम व्यापार के माध्यम से भारत तक पहुंची। सन 1400 ईसा पूर्व के प्राचीन हिन्दू धर्मग्रन्थ 'अथर्ववेद' और 'सुश्रुत संहिता' (600 ईपू) में लेप्रोसी के समान एक बीमारी का संदर्भ मिलता है।
जब कुष्ठ रोग के लाइलाज और वंशानुगत होने के बारे में ऐतिहासिक गलतफहमियां सदियों से बनी हुई थीं, तब 1873 में डॉ. जी. एच. अर्माउर हेन्सन द्वारा माइकोबैक्टीरियम लेप्रे की महत्वपूर्ण खोज ने संसार में तहलका मचा दिया।
डॉ. हेन्सन ने अपने अभूतपूर्व कार्य से कुष्ठ रोग से संबंधित प्रचलित मिथकों को तोड़ने का प्रयत्न किया। उनकी खोज ने यह उजागर किया कि प्राचीन मान्यताओं के विपरीत कुष्ठ रोग कोई दैवीय अभिशाप नहीं है, बल्कि निकट संपर्क के दौरान नाक और मुँह से निकलने वाली बूँदों में जीवाणु के माध्यम से फैलने वाला एक संक्रमण है। इसी प्रकार सन 2008 में प्रोफेसर जियांग यंग हान ने भी अपनी खोज से सिद्ध कर दिया कि यह रोग जीवाणु द्वारा ही फैलता है। इन्हीं कारणों से इस रोग को 'हंसेंस डिज़ीज़' के नाम से भी जाना जाता है।
कुष्ठ रोग का आधुनिक परिदृश्य: कलंक पर विज्ञान की विजय
समकालीन दवाओं और वैज्ञानिक तकनीकों में प्रगति के कारण कुष्ठ रोग को उसकी गंभीरता के आधार पर 6-12 महीनों के भीतर पूरी तरह से ठीक करने योग्य बना दिया है। फिर भी कुष्ठ रोग को लेकर लगातार बनी रहने वाली सामाजिक भ्रांतियाँ इसकी शीघ्र पहचान और उपचार में एक बड़ी बाधा बनी हुई हैं।
कुष्ठ रोग के निशान शारीरिक दायरे से परे प्रभावित लोगों के भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक स्तर तक पहुँचते हैं। कुष्ठरोग-विरोधी कानूनों द्वारा प्रेरित भेदभाव मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को बढ़ा देता है, जिससे रोगियों की खुशी और गरिमा छिन जाती है। यह ज़रूरी है कि हम कुष्ठ रोग से होने वाली मानवीय क्षति को पहचाने और प्रभावित व्यक्तियों को होने वाले भावनात्मक संकट को दूर करने के लिए सामूहिक रूप से काम करें।
उपचार और आधुनिक रणनीतियाँ
कुष्ठ रोग मुख्य रूप से त्वचा और परिधीय तंत्रिकाओं को प्रभावित करता है, जिससे संवेदना की हानि और मांसपेशियों में कमजोरी होती है। शुरुआती लक्षणों में असंवेदनशील त्वचा पर धब्बे, हाथ-पैरों में सुन्नता, पलकें कम झपकाना और पैरों में छाले शामिल हैं। चेहरे की विकृति, भौंह, पलकों का नुकसान, आग, गर्मी और स्पर्श के प्रति असंवेदनशीलता के कारण अंधापन और बाडी पार्ट को नुकसान कुष्ठ रोग के अन्य लक्षण हैं।
मल्टी-ड्रग थेरेपी (एमडीटी) एक क्रांतिकारी उपचार है, जो 'डैप्सोन', 'रिफैम्पिसिन' और 'क्लोफाजिमीन' को मिलाने का परिणाम है। इसके 1983 में भारत में अपनाए जाने के बाद से ही कुष्ठ के उपचार में काफ़ी बदलाव आया है। जहां वैश्विक रूप से इस प्रणाली ने लगभग 95 प्रतिशत रोगियों को ठीक किया है, वहीं भारत में इस प्रणाली द्वारा लगभग 135 लाख व्यक्तियों का सफलतापूर्वक इलाज किया गया है।
भारत में कुष्ठ रोग की वर्तमान स्थिति
प्रभावी उपचार के बावजूद कुष्ठ रोग दीर्घकालिक संरचनात्मक और क्रियात्मक क्षति को छोड़ सकता है। चेहरे की विकृतियाँ, मोटर तंतु क्षति और संवेदनात्मक तंतु क्षति बनी रह सकती हैं, जिसे सुधार के लिए समय पर हस्तक्षेप की आवश्यकता है। कुष्ठ रोग के साथ क्षति की गंभीरता बढ़ती है, जिससे साफ होता है कि समय पर पहचान और उपचार की महत्वपूर्ण भूमिका है। इन क्षति को ठीक करने के लिए भारत सरकार के राष्ट्रीय कुष्ठ उन्मूलन कार्यक्रम में कई सरकारी और ग़ैर सरकारी अस्पतालों में उचित व्यवस्था है।
भविष्य की आवश्यकताओं पर ध्यान देने से पहले भारत में कुष्ठ रोग की ताज़ा स्थिति के बारे में जानना ज़रूरी है। पिछले 3 वर्षों में कुष्ठ रोगियों की संख्या में कुछ सुधार आया है। नये रोगियों की कुल पहचान घटकर 2021-22 में 75,394 हुई, जबकि 2014-15 में 1,25,785 नये रोगी पाय गए। अभी भी विश्व के लगभग 59 प्रतिशत रोगी भारत में रहते हैं। यह दयनीय स्थिति कई वर्षों से चली आ रही है। भारत में छत्तीसगढ, झारखंड, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, चंडीगढ़, दादर नागर हवेली, ओड़िशा में कुष्ठ रोग की समस्या अधिक है। राष्ट्रीय कुष्ठ रोग उन्मूलन कार्यक्रम के अंतर्गत भारत सरकार को स्वयंसेवी संस्थाओं एवं निजी चिकित्सकों को साथ लेकर आगे बढ़ने की आवश्यकता है।
कुष्ठरोग मुक्त देश बनने की दिशा में बढ़ने के लिए कुछ योजनाओं को अपनाना होगा—
1. समेकित कुष्ठरोग निरोधी योजना: कुष्ठमुक्त राष्ट्र की ओर अग्रसर होने के लिए महत्वपूर्ण आवश्यकताओं का समेकित कुष्ठरोग निरोधी योजना बनानी होगी जिसका उद्देश्य केवल कुष्ठ रोग को नष्ट करना ही नहीं, बल्कि उससे संबंधित पूर्वाग्रह से संबंधित कलंक को भी समाप्त करना चाहिए।
2. कुष्ठ विरोधक कानूनों को रद्द करना: ऐसे क़ानूनों को रद्द करना एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है, जो अक्सर प्रभावित व्यक्तियों के अलगाव को बढ़ावा देते हैं। इसके माध्यम से हम एक माहौल बनाने का लक्ष्य रखते हैं जहां प्रभावितों को न केवल सुरक्षित महसूस होता है, बल्कि उन्हें समान अधिकार और अवसर भी प्रदान होते हैं।
3. टीके पर शोध व अपनाना: कुष्ठ रोकथाम के लिए एक प्रभावी टीका एक प्रमुख आवश्यकता है। देश में बना Mycobacterium Indicus Pranii (MIP) टीके को शीघ्र ही राष्ट्रीय कुष्ठमुक्ति कार्यक्रम में शामिल किया जाए। यह कदम न केवल कुष्ठ को रोकने में मदद करता है, बल्कि यह बैसिलरी लोड को कम करने और उपचार की अवधि को कम करने में भी योगदान करता है, जिससे प्रभावित व्यक्तियों पर बोझ कम होगा।
4. नई औषधि अनुसंधान: हालांकि 'मल्टी-ड्रग थेरेपी' (MDT) एक क्रांतिकारी उपचार है परंतु नई, प्रभावी और छोटी अवधि की औषधि विधियों के लिए अनुसंधान करना एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। मौजूदा उपचारों की सीमाओं को मानते हुए हमें नई औषधि विधियों की खोज करते रहना चाहिए। इस अनुसंधान का उद्देश्य उपचार की प्रभावकारिता को अधिकतम करना, प्रतिद्वंद्वी प्रभावों को कम करना और समग्र प्रक्रिया को सहज करना है ताकि प्रभावित व्यक्तियों को लाभ मिल सके।
5. गुणवत्ता स्वास्थ्य शिक्षा: कुष्ठ रोग के बारे में भ्रांतियों और ग़लतफहमियों को दूर करना समृद्धि के लिए मौलिक है। सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील स्वास्थ्य शिक्षा सामग्री का विकास एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। इस सामग्री में सार्वभौमिक धारणाओं को बदलने, उल्लेख की सकारात्मक छवियों को मज़बूत करने और उन व्यक्तियों की सफलता की कहानियों को साझा करना चाहिए जो कुष्ठ से बाहर आ गए हैं।
कुष्ठरोग मुक्त राष्ट्र की ओर हमारी सामूहिक यात्रा एक समग्र और माननीय दृष्टिकोण की मांग करती है। इसके लिए मिथकों को दूर करना, वैज्ञानिक प्रगति को अपनाना और प्रभावित लोगों के सामने आने वाली सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का समाधान करना आवश्यक है। हम न केवल भौतिक परिदृश्य से बल्कि मानवता के दिल और दिमाग से भी कुष्ठ रोग को खत्म करने की अपनी प्रतिबद्धता में एकजुट हों। साथ मिलकर, हम एक ऐसा समाज बना सकते हैं जो विविधता का जश्न मनाए, समावेशिता को बढ़ावा दे और प्रत्येक व्यक्ति की अंतर्निहित गरिमा को बनाए रखे।
लेखक सुबोध कुमार भारत सरकार में राष्ट्रीय कुष्ठ रोग उन्मूलन के रणनीतिकार रहे