24-Jun-2023, Saturday
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JANANPITH AWARD
ज्ञानपीठ पुरस्कार समिति अपने कारण सार्वजनिक करें जिससे पता चल सके कि ममता कालिया, चित्रा मुद्गल या नासिरा शर्मा जैसी लेखिकाओं की अनदेखी क्यों की जा रही है।
लंदन: दो ग़लत निर्णय मिल कर एक सही निर्णय नहीं बन सकते। वे दो ग़लत निर्णय ही बने रहेंगे। कुछ ऐसा ही ज्ञानपीठ पुरस्कार समिति ने किया है। पहले तो उन्होंने जगद्गुरु की उपाधि से सम्मानित स्वामी रामभद्राचार्य को संस्कृत भाषा के साहित्य के लिये वर्ष 2023 का ज्ञानपीठ पुरस्कार देने की घोषणा कर दी। फिर उन्हें डर सताने लगा कि इस घोषणा पर तीखी प्रतिक्रियाएं अवश्य मिलेंगी। उन्होंने संतुलन बनाए रखने के लिये दूसरा ग़लत निर्णय लिया और साझा रूप से पुरस्कार फ़िल्मी गीतकार गुलज़ार को भी उनके उर्दू साहित्य के लिये सम्मानित करने का निर्णय ले लिया।
सुप्रसिद्ध कथाकार और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रतिभा राय की अध्यक्षता के हुई चयन समिति की बैठक में यह निर्णय लिया गया। बैठक में चयन समिति के अन्य सदस्य माधव कौशिक, दामोदर मौजो, प्रो. सुरंजन दास, प्रो. पुरुषोत्तम बिल्माले, प्रफ्फुल शिलेदार, प्रो. हरीश त्रिवेदी, प्रभा वर्मा, डॉ. जानकी प्रसाद शर्मा, ए. कृष्णा राव और ज्ञानपीठ के निदेशक मधुसुदन आनन्द शामिल थे। पुरवाई परिवार को इस बात का पूरा भरोसा है कि ये सभी सदस्य संस्कृत और उर्दू भाषा के विशेषज्ञ रहे होंगे।
भारतीय ज्ञानपीठ 1965 से हर वर्ष भारतीय साहित्य में उत्कृष्ट योगदान ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान करता है। संस्कृत के लिये पहला ज्ञानपीठ पुरस्कार डॉ. सत्यव्रत शास्त्री को वर्ष 2006 में प्रदान किया गया था। उन्हें पद्मश्री एवं पद्मभूषण सम्मानों से भी अलंकृति किया गया था। उनके तीन महाकाव्य ‘वृहत्तमभारतम्’, ‘श्रीबोधिसत्वचरितम्’ और ‘वैदिक व्याकरण’ हैं।
डॉ. सत्यव्रत शास्त्री दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर के पद पर रहे और उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के संस्कृत स्कूल में भी योगदान दिया। प्रो. शास्त्री श्रीजगन्नाथ संस्कृत यूनिवर्सिटी, पुरी, ओडिसा के वाइस चांसलर पद पर भी कार्यरत रहे। उनके बारे में एक जानकारी बहुत विशेष है। वे अकेले ऐसे शख्स हैं, जिन्होंने थाईलैंड की महारानी को संस्कृत सिखाई और संस्कृत में ही बी.ए. व एम.ए. की डिग्री दिलाई।
सूत्रों के अनुसार, सन 1977 में थाईलैंड की हर रॉयल हाईनेस महाचक्री प्रिंसेज सिरिन्थोर को संस्कृत से एम.ए. करनी थी। वह बैंकॉक में शिक्षा ग्रहण कर रही थीं। थाईलैंड की सरकार ने भारत सरकार से अनुरोध किया कि महारानी को संस्कृत पढ़ाने के लिए किसी अनुभवी संस्कृत शिक्षक की व्यवस्था की जाए। उसके बाद भारत सरकार ने डॉ. सत्यव्रत शास्त्री का नाम तय किया और उन्हें पढ़ाने के लिए भेज दिया।
मगर संस्कृत भाषा के साथ यह हादसा अवश्य हुआ है कि वर्ष 2006 में उसे कोंकणी साहित्य के रवीन्द्र केलकर के साथ साझा सम्मान लेना पड़ा और आज वर्ष 2023 का सम्मान उर्दू के गुलज़ार के साथ साझा करना पड़ा। गुलज़ार से पहले चार उर्दू साहित्यकारों को ज्ञानपीठ पुरस्कार से अलंकृत किया जा चुका है। इनमें शामिल हैं – रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी (1969), क़ुर्रतुल ऐन हैदर (1989), अली सरदार जाफ़री (1997) और शहरयार (2008)। इन सभी साहित्यकारों को लेकर किसी के मन में कोई संशय या सवाल नहीं उठे।
58 पुरस्कारों में से 54 पुरस्कार हमेशा अकेले साहित्यकार को ही प्रदान किये गये। केवल चार बार दो भाषाओं के साहित्य के बीच समन्वय बिठाने का प्रयास किया गया। 1973 में दत्तात्रेय रामचंद्र बेन्द्रे (कन्नड़) एवं गोपीनाथ महान्ती (ओड़िया) ; 1999 में निर्मल वर्मा (हिन्दी) एवं गुरदयाल सिंह (पंजाबी) ; 2006 में रवीन्द्र केलकर (कोंकणी) एवं सत्यव्रत शास्त्री (संस्कृत) और 2014 में भालचन्द्र नेमाड़े (मराठी) एवं रघुवीर चौधरी (गुजराती) को साझा रूप से पुरस्कृत किया गया।
एक मज़ेदार स्थिति यह है कि स्वामी रामभद्राचार्य को ज्ञानपीठ सम्मान देने के विरोध में और समर्थन में अधिकांश टिप्पणियां राजनीतिक टोन वाली हैं चाहे वो टिप्पणियां राजनेताओं ने की हैं या फिर साहित्यकारों ने। संस्कृत भाषा का ज्ञान लगभग किसी को भी नहीं है, इसलिये स्वामी रामभद्राचार्य के लिखे पर सीधी टिप्पणी करने की स्थिति में कोई भी नहीं है।
स्वामी रामभद्राचार्य को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने पर वरिष्ठ लेखक विष्णु नागर कहते हैं, “भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार गुलज़ार और रामभद्राचार्य को मिला है। गुलज़ार को तो छोड़िए, इस पुरस्कार का रामभद्राचार्य को देना, जो राममंदिर आंदोलन के स्तंभों में से हैं और जो राम को नहीं भजता, यह कहते हुए एक जाति विशेष के लिए अपमानजनक टिप्पणी के कारण हाल ही विवाद में रहे हैं, जिन पर 2009 में भी रामचरित मानस के साथ छेड़छाड़ का विवाद जुड़ा है, जिनके साहित्यिक अवदान के बारे में कोई नहीं जानता, उन्हें भी भारत का सर्वश्रेष्ठ माना जाने वाला पुरस्कार दिया जा सकता है तो फिर क्या बचा?”
विष्णु नागर जी ने अपने वक्तव्य में कहीं नहीं कहा कि रामभद्राचार्य का लेखन कमज़ोर है। उन्होंने प्रयास ही नहीं किया कि वे संस्कृत में लिखे साहित्य का अनुवाद ही पढ़ने के लिये समय निकाल ले। उन्हें रामभद्राचार्य की एक जाति विशेष के लिये अपमानजनक टिप्पणी याद रही, जिसके कारण उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार नहीं मिलना चाहिये।
कथा यूके ने यमुना नगर (हरियाणा) में एक प्रवासी सम्मेलन का आयोजन डीएवी गर्ल्स कॉलेज के साथ मिल कर किया था। यमुना नगर वासियों को ख़बर मिली कि कथाकार राजेन्द्र यादव हमारे प्रवासी सम्मेलन के मुख्य अतिथि हैं तो वे कॉलेज के मुख्य द्वार पर आकर नारेबाज़ी करने लगे। हंस के एक संपादकीय में राजेन्द्र यादव ने लिख दिया था कि ‘हनुमान पहले आतंकवादी थे।’ मुझे याद नहीं पड़ता कि विष्णु नागर ने उस समय राजेन्द्र यादव की इस टिप्पणी की निंदा की हो।
हम ऊपरी तौर पर देखने से स्वामी रामभद्राचार्य किसी साहित्यिक पुरस्कार के लिये सही प्रत्याशी नहीं प्रतीत होते। यदि राम और कृष्ण पर लेखन को ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिये चुना ही जाना चाहिये तो हमारे हिसाब से नरेन्द्र कोहली अपनी रामकथा, महासमर और तोड़ो कारा तोड़ो के लिये अधिक उपयुक्त साहित्यकार हैं जिन्हें ज्ञानपीठ दिया जा सकता है। एक साहित्यकार के रूप में शायद वे सबसे अधिक लोकप्रिय कथाकार रहे हैं और उन पर विश्वविद्यालयों में सबसे अधिक शोध भी हुए हैं। यदि सरकार चाहे तो आसानी से पांच लोगों को भारत रत्न की उपाधि से अलंकृत की है। आजकल चौधरी चरण सिंह और कर्पूरी ठाकुर जैसे नामों को भारत रत्न से मरणोपरांत विभूषित किया जा रहा है तो स्वीमी रामभद्राचार्य को भी किया जा सकता है। साहित्य में पहले बहुत सी राजनीतिक घुसपैठ होती रही है। इस तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप साहित्य के लिये घातक सिद्ध हो सकता है।
गुलज़ार साहब (असल नाम संपूर्ण सिंह कालरा) को फ़िल्म स्लम डॉग मिलियनेयर के लिये जय हो जैसे गीत पर ऑस्कर सम्मान मिला था। यह एक फ़िल्मी पुरस्कार है जिसका सीधा साहित्य से कोई सरोकार नहीं है। सिनेमा के लिये उनके सबसे अधिक लोकप्रिय गानों में शामिल है कि बीड़ी जलाए लो जिगर से पिया / जिगर मां बड़ी आग है। आप सवाल करेंगे कि गुलज़ार साहब को फ़िल्मी गीतों के लिये तो सम्मानित किया नहीं गया। उन्हें तो उनकी उर्दू शायरी के लिये यह सम्मान दिया गया है।
भारत में साहित्य उत्सव आजकल बहुत जगह होते रहते हैं। गुलज़ार और जावेद अख़्तर वहां के पोस्टर बॉय हैं। मैं उन लोगों में से हूं जो पिछले बीस वर्षों से यह मुहिम चलाए हुए हैं कि शैलेन्द्र, भरत व्यास, साहिर लुधियानवी, शकील बदायुनी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफ़ी आज़मी, राजेन्द्र कृष्ण जैसे अन्य फ़िल्मी गीतकारों को साहित्यकार का दर्जा मिलना चाहिये। उर्दू शायरी में साहिर, कैफ़ी, शकील मजरूह तो गुलज़ार के मुकाबले बहुत बड़े शायर हैं। मगर न तो साहित्य अकादमी और न ही ज्ञानपीठ का ध्यान कभी उनकी ओर गया।
ज्ञानपीठ पुरस्कार समिति अपने कारण सार्वजनिक करें जिससे पता चल सके कि ममता कालिया, चित्रा मुद्गल या नासिरा शर्मा जैसी लेखिकाओं की अनदेखी क्यों की जा रही है। ज्ञानपीठ को याद रखना होगा कि ये पुरस्कार शुद्ध साहित्य के लिये है; साहित्य की गुणवत्ता को रेखांकित करने के लिये। इसमें किन्तु परन्तु के लिये कोई स्थान नहीं है। गुलज़ार को जितने भी फ़िल्मी पुरस्कार मिले हैं, वे उनके हक़दार हैं। स्वामी रामभद्राचार्य को पद्म सम्मान या भारत रत्न मिलने से किसी को कोई समस्या नहीं है… ज्ञानपीठ पुरस्कारों को बख़्शा जाए!
लेखक लंदन निवासी वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं.