24-Jun-2023, Saturday
Sarve Bhavantu Sukhinaḥ
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TOILET TREES
हैरान करने वाले आंकड़े बताते हैं कि अमरीका में टिशु पेपर का बाज़ार लगभग ₹2,213 अरब का है। उत्पादन के हिसाब से तीन कंपनियां इस बिज़नेस की लीडर हैं – प्रॉक्टर एण्ड गैंबल, जॉर्जिया-पैसिफ़िक औक किंबरलीI
लंदन: मुझे अपना बचपन याद है। जब हम रेलवे के घर में पंजाब के एक छोटे शहर मौड़ मंडी में रहा करते थे। बाऊजी वहां स्टेशन मास्टर थे। उससे पहले की यादें थोड़ी धुंधली हैं। मगर अच्छी तरह याद है कि गुसलखाना और पाख़ाना अलग-अलग होते थे और एक दूसरे से दूरी पर होते थे।
रेलवे क्वार्टरों में हम पढ़े लिखे लोग होने का नाटक करते थे तो पाख़ाने को लैट्रीन कहते थे और गुसलख़ाने को बाथरूम। हमारे यहां लैट्रीन ऐसी होती थी जिसमें एक लोहे का बना लंबा से आयताकार पॉट होता था। सारे परिवार का मल्ल उसी पॉट में इकट्ठा हो जाता और जमादार या जमादारनी आकर उस मल्ल को उठा कर ले जाते और पॉट को पानी से साफ़ कर देते।
जब यूरोपीय सिस्टम शुरू हुआ तो साथ ही शुरू हुआ टॉयलट टिशु का इस्तेमाल। फ़िल्म गर्म हवा में बूढ़ी दादी झल्लाते हुए कहती भी है, “ये मुए अंग्रेज कितने गंदे होते हैं। पानी से धोते नहीं काग़ज़ से साफ़ कर लेते हैं।”
काग़ज़ का इस्तेमाल हमारे जीवन में हर जगह होता है। पुस्तकें, समाचार पत्र, सामान की रसीदें, प्रिंटर के लिये पेपर, पोस्टर, लिफ़ाफ़े, ग्रीटिंग कार्ड्स, पोस्ट कार्ड, किचन टॉवल, पेपर नैपकिन और टायलट टिशु – ये सब काग़ज़ से ही बने होते हैं। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि काग़ज़ बनता है पेड़ों से। यानी कि काग़ज़ बनाने के लिये पेड़ काटने पड़ते हैं। पेड़ जिस तेज़ी से कटते हैं उस गति से लगाए नहीं जाते। पेड़ों के कटने से पर्यावरण पर असर पड़ता है और एक शब्द जो हमें बुरी तरह परेशान करता है, उसे कहते हैं – ग्लोबल वार्मिंग।
अब एक हैंड शॉवर लगाना शुरू किया गया है। जिसे हाथ में पकड़ कर पानी से सफ़ाई की जा सकती है। मगर यहां भी बहुत से नख़रे वाले लोग पहले टिशु का इस्तेमाल करके पोंछते हैं और उसके बाद धोते हैं। यानी कि न तो पेड़ों पर मेहरबानी करते हैं और न ही पानी पर। उपभोक्ताओं की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए पेपर कंपनियां बहुत तेज़ी से पेड़ों को काट रही हैं।
कोरोना काल के बाद तो वेट टिशू और एंटी-बैक्टीरियल टिशू भी फ़ैशन में आ गये हैं। अब हर दूसरा आदमी वेट-टिशु से अपना चेहरा साफ़ करता दिखाई दे जाता है।
इन्सान की प्रकृति कुछ ऐसी है कि वह चाहता है कि दुनिया तो बदल जाए मगर उसे ख़ुद को बिल्कुल ना बदलना पड़े। सरकार या सरकारें सब कुछ ठीक कर दें, मगर उससे कुछ करने को ना कहा जाए। हम पानी भी व्यर्थ बहाएंगे, टॉयलेट पेपर भी इस्तेमाल करेंगे, फ़्रिज, एअर कंडीशनर, कार, स्कूटर सब इस्तेमाल करेंगे मगर सरकार किसी तरह पर्यावरण के स्वच्छ कर दे।
लेखक लंदन निवासी वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं.